शिमला टाइम
कोरोना किसी को भी हो सकता है । कहां, कब, कैसे …? यह किसी को भी नहीं पता, जिस तरह देश में मामले बढे और हिमाचल में भी सामुदायिक प्रभाव दिख रहा है, यह वायरस कभी भी किसी के घर में दस्तक दे सकता है । हाल ही में अनलॉक होने के बाद आर्थिक गतिविधियां बढ़ी हैं उससे कामकाज पर निकले, बसों में बैठे और दफ्तरों में कलम घिसते लोगों का इसकी चपेट में आना स्वाभाविक है । लेकिन जिस तरह से कोविड-19 प्रभावित व्यक्ति का सामाजिक तिरस्कार हो रहा है, वह उस समाज का विभत्स चेहरा है जहां मानव संवेदनाएं शून्य हो गईं हैं । घर-परिवार में तो स्थिति गैरों वाली भले ही ना हुई हो लेकिन समाज व संप्रदाय में जिस नज़र से सक्रंमित की ओर देखा व आकलन किया जा रहा है वह बरसों पुरानी छुआ-छूत की परंपरा को प्रतिबिंबित कर रही है ।
अमेरिका में रंग-भेद का वाक्या कोरोना दौर में ताज़ा उदाहरण दुनिया ने देखा है । लेकिन इससे भी कई गुणा पीड़ा का अहसास वह व्यक्ति या परिवार कर रहा है जो या तो सक्रंमित हो गया है या सक्रंमित के संपर्क में आया हो। यह कोई अपराध तो नहीं, कि पास-पड़ोस के लोग कान में खुसर-पुसर करके कहें कि,“देखो वह कोरंनटीन हो गया है”। यह भी कोई जुर्म नहीं कि वह “रेड़ जोन” से आया है ? यह भी कोई वजह घूरने की नहीं कि वह ऐहतियातन खुद को कुछ दिन के लिए अपने को समाज से अलग इसलिए कर रहा है ताकि दूसरे इस खतरे से बचे रहें ।
कम्यूनिटी स्प्रेड की ओर बढ़ रहे हिमाचल में मानवीय संवेदनाओं को इतना शून्य होते कभी नहीं देखा था । मेरे पहचान में एक गरीब परिवार की बिटिया का पति दिल्ली में होटल का वेटर था । होटल बंद हो गए । खाने को पैसा नहीं था । मां ने अपने पास बुला लिया । बस घर आने की देर थी । घर के बाहर क्वारन्टीन होने का फट्टा क्या टंगा, सारे ज़माने की शराफत मिट्टी में मिल गई । जैसे ना जाने बला की मुसीबत आन पड़ी हो । घरवालों से पास-पड़ोस का ऐसा व्यवहार ? फोन घनघनाने लगे, अरे वो बाहर से आएं हैं, ना मिलना, पास ना जाना… वगैरह वगैरह । इसी तरह चंडीगढ़ में एक मकान मालिक ने अस्पताल में काम कर रही नर्स को घर छोड़ने का नोटिस थमा दिया । उसका कुसूर था कि वह कोविड सेंटर में काम कर रही थी ।
कोरोना से कोई मरे या नहीं परन्तु इसका नाम मानों “कलंक” हो गया । दफ्तरों में जैसे ही पता चला कि फलांना कोविड पॉजिटिव निकला तो वह जिस- जिस से मिला, क्या वह “अछूत” हो गया ?
बड़ी-बड़ी आंखों से घूरती नज़रे यूं लगने लगी जैसे लाखों खून करके मुलजिम सलाखें के पीछे छुप कर बैठ जाए। कोविड केयर सेंटर में बैठा इंसान किस मनोवैज्ञानिक ट्रामा से गुजर रहा है, यह सोच के भी मन सिहर जाए । वह 15 दिन किसी से मिल नहीं पा रहा, अपनी बिमारी या कष्ट को अपनों से सांझा नहीं कर पा रहा, यह किसी प्रतारणा से कम नहीं । संवेदनाएं शून्य हो चुकी हैं। फेसबुक पर नाम डाल- डाल कर प्रचारित हो रहा है कि फलां कोविड का शिकार हो गया । वहीं उसका परिवार भी अपराधी हो गया ।
घर आंगन में खिलखिला कर खेल रहे नन्हे बच्चे, एक दम सहम चुके हैं । कॉलोनी का मैदान हो या बरगद की नीचे छांव में टहनियों में लटकता बचपन, कहीं खो गया । दीवार के पीछे से झांकती नज़रें यूं दूसरे घर को ताक रही हैं य मानों मौत का मातम छा गया हो । क्योकि कोई व्यक्ति या परिवार कोरोना के कारण एकांत में चला गया है । यह दशा व स्थिति आज एक की है तो कल किसी और की भी हो सकती है । जिस तरह से पेंडेमिक बढ़ रहा है स्थिति और विस्फोटक होगी ।
केरोना वारियर्स के लिए तालियां बजाने का दौर तो खतम हो गया परन्तु मरीज और सारे परिवार के साथ सांतवना का वक्त भी दिखा नहीं । कई वाक्ये यह भी आए कि परिवार ने अपने ही घरवालों को छोड़ दिया । यह समय भेदभाव का नहीं है । मिलकर चुनौती से जूझने का है । अमिताभ बच्चन ने भी अस्पताल से भावनाएं बताई कि कैसे कोरोना सवंमित अकेले पड़ चुका है ? बड़े-बड़े अमीर हों या सत्ताधारी, कोई इस सामाजिक पीड़ा से रू-ब-रू नहीं हुए होंगे ।कोरोना की तकलीफ तो दूर हो जाएगी परन्तु बुरे दौर अपने रिश्तों के भटकने का जख्म शायद ही कोई ताउम्र भूल सकेगा । इसलिए मास्क पहनकर और सफाई का ध्यान रख कर, कोविड-19 को हराने का अनुशासित कार्य सभी कर सकते हैं ।
केरोना वारियर्स के लिए तालियां बजाने का दौर तो खत्म हो गया परन्तु मरीज और सारे परिवार के साथ सांत्वना का वक्त भी दिखा नहीं । कई वाक्ये यह भी आए कि परिवार ने अपने ही घरवालों को छोड़ दिया । यह समय भेदभाव का नहीं है । मिलकर चुनौती से जूझने का है । अमिताभ बच्चन ने भी अस्पताल से भावनाएं बताई कि कैसे कोरोना सवंमित अकेले पड़ चुका है ? बड़े-बड़े अमीर हों या सत्ताधारी, कोई इस सामाजिक पीड़ा से रू-ब-रू नहीं हुए हांगे । कोरोना की तकलीफ तो दूर हो जाएगी परन्तु बुरे दौर अपने रिश्तों के भटकने का जख्म शायद ही कोई ताउम्र भूल सकेगा ।
इसलिए मास्क पहनकर और सफाई का ध्यान रख कर, कोविड-19 को हराने का अनुशासित कार्य सभी कर सकते हैं।
लेखक
डॉ रचना गुप्ता
सदस्य- हिमाचल प्रदेश लोक सेवा आयोग एवं पूर्व सम्पादक
एक दम सही,,,,
आज इंसान को जितना डर कोरोना का है उससे कहीं ज्यादा डर उस तिरिस्कार का है जो सोसाइटी उसके और उसके परिवार के साथ पॉजिटिव आने के बाद करेगी।
यह समय उन सब से घृणा का नही बल्कि उनके साथ खड़े होने का है।
Mam I think a love all its the fear which culminated into the stigma like behaviour in society . I do not think it’s the end of human emotions .Human has not been changed but he has to like this , because this is required , this is not rang -bhed at all as no other way to show feeling only pray to almighty, Time will change definitely change.