भूख व बेकारी से मरने से कहीं अच्छा है कोरोना से लड़ कर इसे हराया जाए

क्या लॉकडाउन ही समस्या का हल है?

शिमला टाइम

एक तरफ़ लोग लापरवाही की सारी हदें पार कर रहे हैं दूसरी तरफ़ लॉकडाउन की मांग कर रहे हैं। जो दिनभर कमाता है फिर रात को खाता है उसके बारे में कौन सोचेगा? हर क्षेत्र में वर्क फ्राम होम लागू नहीं हो सकता। जो होना था हो गया, जो होना है होकर रहेगा लेकिन जिसे होने से रोका जा सकता है उस तरफ़ ध्यान देने की बजाए लॉकडाउन की मांग करना कतई सही नहीं।

भूख व बेकारी से मरने से कहीं अच्छा है कोरोना से लड़ कर इसे हराया जाए। एक महामारी को रोकने के लिए अन्य समस्याओं को जन्म देना क्या सही होगा?

जिसके पास जीवन निर्वाह के लिए संसाधन उपलब्ध हैं वह तो बिस्तर पर लेट कर आराम से हाथ में स्मार्टफ़ोन लिए स्मार्ट-स्मार्ट बातें कर सकता है लेकिन उसका क्या जो सुबह मजदूरी करने जाता है और जो कुछ कमाता है उसी से खुद व परिवार को खिलाता है। उसके बिस्तर पर न तो 4-5 इंच का मोटा गद्दा है, न ही वह स्मार्टफ़ोन जिससे बिस्तर पर लेटे हुए स्मार्ट तरीके से लॉकडाउन लगाओ या हटाओ टाईप कर देने से टाईम पास करके अपनी राय रख सके। वह तो बस चारपाई पर लेटकर यह सोचेगा कि अब क्या कमाएगा क्या खाएगा? गरीब आदमी यदि मास्क नहीं पहनता तो उसे तो साधन संपन्न पड़ोसी भी हड़का कर बोल देता है कि मास्क पहनों आपका चालान हो जाएगा लेकिन जो खुद को ‘स्मार्ट’ समझते हैं उन्हें किसी की हिम्मत नहीं होती यह कहने की कि आपने मास्क क्यों नहीं लगाया?

अब उन आंकड़ों की बात कर लेते हैं तो जो स्मार्ट लोगों को आसानी से समझ आ जाते हैं लेकिन एक गरीब के लिए आंकड़ों के जाल से भूख-प्यास का जाल ज्यादा जी का जंजाल बन जाता है। 22 मार्च से लेकर 20 मई तक की अवधि में लॉकडाउन से हुए आर्थिक नुकसान को लेकर एसबीआई रिसर्च ईकोरैप द्वारा 26 मई को प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि कोरोनो वायरस के प्रकोप ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को 30.3 लाख करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाया है, जो कि केंद्र सरकार द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ रुपये के कोविड ​​-19 राहत पैकेज से 50 प्रतिशत अधिक है, यह देश के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का 13.5 % है। जब भारत में पहली बार लॉकडाउन लगा था तो हमारा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का अनुमान 2.6% था, इसके बाद यह क्रमिक रूप से कम होकर नकारात्मक 4.7% हो गया। जहां भारत के सबसे बड़े जिले स्थित हैं उस रेड जोन में नुकसान अधिकतम (लगभग 50%) रहा। ऑरेंज व रेड जोन का संयुक्त नुकसान कुल नुकसान का लगभग 90% है। ग्रीन ज़ोन में नुकसान न्यूनतम रहा क्योंकि इस क्षेत्र में 80% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित है जो सभी गतिविधियों के लिए लगभग खुला रहा है। हिमाचल प्रदेश को सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का 17 हजार 728 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ जो उसके सकल राज्य घरेलू उत्पाद का 10% के बराबर है।

पुलिस मुख्यालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019 में आत्महत्या के कुल 709 मामले दर्ज हुए जबकि इस साल जनवरी से लेकर 26 जुलाई तक 430 मामले सामने आए हैं जहां पिछले वर्ष आत्महत्या का प्रति सप्ताह औसत 13.6 था वहीं इस साल जनवरी से लेकर 26 जुलाई तक यही औसत 15 प्रति सप्ताह रहा। इन आत्महत्याओं के पीछे भले ही अन्य कारण भी जिम्मेदार रहे हों लेकिन लॉकडाउन ने इन आंकड़ों में परोक्ष व अपरोक्ष रूप से वृद्धि की है। महिलाओं से यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, सोशल मीडिया में शोषण, अश्लील प्रतिनिधित्व, बाल पोर्नोग्राफ्री तथा साइबर धोखाधड़ी के मामले भी लॉकडाउन में अन्य दिनों की तुलना बढ़ें हैं।

यह भी मानना होगा कि नए पुलिस महानिदेशक संजय कुंडू (आईपीएस) के आने से पुलिस विभाग में दिन ब दिन सुधार होता देखा जा रहा है। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि प्रदेश के नए पुलिस महानिदेशक ने अपराध से निपटने के लिए मानवीय व संवेदनशीलता जैसे पहलुओं को बाखूबी पुलिस विभाग में व्यवहारिकता से लागू करवाया है। पुलिस के प्रति लोगों का विश्वास भी बढ़ा है। पुलिस विभाग द्वारा महिलाओं के साथ होने वाले अपराध को रोकने और अन्वेषण करने के लिए समन्वय से कार्य करने के साथ-साथ आत्महत्या के मामलों में पुलिस द्वारा प्रोफाइल बनाने की कोशिश भी एक प्रशंसनीय कार्य रहा है बावजूद इसके लॉकडाउन जैसी स्थिति में सबसे ज़्यादा परेशानियों व महामारी के जोखिम का सामना पुलिस को ही करना पड़ रह है।

मार्च-अप्रैल में लॉकडाउन के कारण मजदूरों के पलायन के चलते बहुत सी जगह गेहूं की तैयार फसल मंडियों तक नहीं पहुंच पाई परिणामस्वरूप आपूर्ति श्रृंखला बाधित हुई। डेयरी उत्पादों जैसे दूध, अंडा आदि की बिक्री प्रभावित हुई, पोल्ट्री फॉर्म्स जैसे व्यवसाय पूरी तरह से चौपट हो गए। कारखाने बंद हो गए, व्यापार चौपट हुए, बहुत से मजदूरों का पलायन हुआ, बेरोजगारी की समस्या ने लोगों के सामने गंभीर संकट खड़ा कर दिया है। लोगों का सामाजिक दायरा भी कम हुआ है, जो लोग लॉकडाउन लगाने की बातें कर रहे हैं उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि दिन-रात सिर्फ कोरोना से संबधित खबरें लोगों को मानसिक रूप से परेशान कर रही हैं, नकारात्मक सोच हावी हो रही है। दिनभर घरों में रहने और शारीरिक व्यायाम न होने से एक स्वस्थ्य व्यक्ति भी खुद को शारीरिक व मानसिक रूप से बीमार समझने लग गया है। छोटे-छोटे बच्चे जो दोस्तों के साथ बाहर खेलते कूदते थे लॉकडाउन के चलते पूरा दिन घर पर रहकर चिड़चिड़ापन महसूस करने लगे हैं। किशोरों व युवाओं में इस अकेलेपन की वजह से नशीले पदार्थों के सेवन की तरफ़ रूझान बढ़ा है।

लॉकडाउन जितना बोलना आसान है उसका भुगतान करना उतना ही कठिन है। बिजली का बिल बढ़ा, बस किराया बढ़ा अन्य चीजों की कीमतों में वृद्धि के पीछे भी लॉकडाउन ही काफी हद तक जिम्मेदार था। आज सभी कोरोना से बचने के तरीके जान गए हैं लेकिन फिर भी कहते हैं कि लॉकडाउन लगाओ मतलब साफ है कि हम प्रशासन की सख्ती की भाषा समझना चाहते हैं खुद समझ के वाबजूद समझदार नहीं बनना चाहते। भारत की आबादी में 85 फीसदी हिस्सा गरीब समुदाय और किसानों का है किसी भी आपदा में वे सबसे अधिक पीड़ित होते है। इस समय जरूरत है इस वर्ग को बचाने की। यदि हम शारीरिक दूरी का पालन करें, मास्क लगाएं, बाहर आने-जाने पर हाथ धोएं, चेहरे व जरूरी चीजों को बगैर हाथ धोए न छुएं तो लॉकडाउन की जरूरत ही नहीं होगी। लॉकडाउन तो थोपी हुई बंदिशें हैं और ऐसी बंदिशें बिना लॉकडाउन के हम खुद को आत्मनियंत्रित करके लगा सकते हैं और इन बंदिशों से कम से कम बेकारी और भूखमरी जैसी वह महामारी तो नहीं बनेगी जो गरीब, मजदूर, किसान व बेरोजगार आदि को ही हमेशा से निगलती आई है।

लेखक

राजेश वर्मा -शिक्षाविद
हिमाचल प्रदेश ( मंडी)

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